होते होते
उतर आता है
फिर वही ठहराव
दीखते हुए भी नहीं दिखाई देता कुछ भी
क्या
कैसा रास्ता
कहाँ गंतव्य
न कुछ सूझता
न किसी का संकेत सुनाई देता
ठहरे ठहरे
गतिमान होने का स्वांग
भरते भरते
भी
यह
जो थकान सी उतर आई है
अब इसके सत्कार में
बीत रहा है समय
ठहराव का साथ देना
सीखा ही नहीं समय ने
फिर से उठ कर
थपथपाता हूँ धरती
शायद
माँ के भीतर से ही
फूट पड़े पुकार
पथ दिखलाने
स्वयं प्रकट हो जाएँ
पग डंडियाँ
छूट जाने ठहराव से
गति को बुलावा भेजने
इस बार
कुछ नया ढंग अपना लेने
उतर पडा हूँ अपने ही भीतर
बचते बचाते
उस बिंदु से
जहां
एक जान पड़ते हैं
गति और स्थिरता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
अप्रैल
5 comments:
बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना....
अनु
गति तो समय में होती है ... उम्र में ही होती है ... पर ठराव मन में आता है ... जो जागने पे देखता है की समय आगे निकल चुका है ..
गहरा भाव लिए रचना ...
बहुत सुंदर
क्या बात
जब स्वयं की गति रुक जाये तो बहती हवा की गति से स्फूर्ति पानी चाहिये।
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