ये अनिर्णय की कविता है
कभी कभी
ठण्ड में जम जाता है
निर्णय
उठना या न उठना
एक मद्धम सी गर्माहट का घेरा
टूट सकता है
हमारे हिलने से
बोध इसका
बिठाये रखता है
एक मुद्रा में
कुछ ऐसी ही गर्माहट
बन आती है सोच के स्तर पर
जो जैसा है
उसमें से झरती एक उष्णता की
रोक देती है
प्रवाह चिंतन का
जीते-जागते,
जड़ होने का स्वांग भरते
हम
टालते रहते हैं
जाग्रत होने का निर्णय
इस तरह
एक क्षण की संभावित टूटन में
सिमट कर मिट जाती हैं
चुपचाप
ना जाने कितनी संभावनाएं
हम चाहे जितने स्वतंत्र हों
निर्णय यदि लेते नहीं समय पर
समय ही कर देता है निर्धारण
हमारी दशा और दिशा का
लगता है
चाहे जितनी पीड़ा हो
एक क्षण की शल्य चिकित्सा कर
कर ही देना चाहिए निर्णय अपना, अपनी ओर से
वर्ना
यह जो समय है
आरोपित कर ही देगा अपना निर्णय
हम पर
चलो उठ ही जाएँ
अपना जीवन आप बनाएं
जो हमारे हिस्से का काम है
वो समय से क्यूं करवाएं ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ मार्च २० १ ३
(मंगलवार)
1 comment:
त्याग अनिर्णय कार्य करें कुछ
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