कब तक बैठे बैठे
देखना है
लहरों का आना जाना
क्यूं नहीं जानता
होता है कैसे
सागर में खो जाना
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सन्नाटा ऐसा
सहम कर छुप गए
सारे स्पंदन
इस तरह
अपना होकर भी
अपना सा नहीं लगता मन
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
2 फरवरी 2013
3 comments:
जब आती लहरें जाती है,
कुछ सुप्त पार ले जाती है।
स्वयं मे स्वयं की खोज निरंतर ......
बहता रहता है फिर अंतर ...
बहुत सुंदर
क्या कहने
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