धीरे धीरे
भूल जाती है
दादी की वो बात
की
सब कुछ उसके करने से होता है
सब कुछ उसे अर्पित कर दो
कर रहा हूँ 'मैं'
यह भाव सहज ही घेर कर
बढाता रहता है बंधन
फिर कभी
सफलता का आलिंगन
और ढेर सारा क्रंदन
घेरे में घिर कर
दूर होती जाती है
दादी की बात
और
मुक्ति की वो सौगात
जो
मिली थी जन्म के साथ
एक चक्र चलता है दिन-रात
एक संघर्ष सा अपने साथ
और कभी
किसी निश्छल,
कोमल क्षण में
निर्मल मन करता
यह अधीर प्रयास
ढूंढने लगता
वो खिड़की
जहाँ से दादी की
देहातीत मुस्कान
फिर से आ जाए मेरे पास
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
5 अक्टूबर 2012
4 comments:
aabhar....
सुंदर अभिव्यक्ति......
पूर्वजों को नमन ....!!
बहुत ही सुन्दर रचना।
बहुत ही भावमय करते शब्द
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