Friday, October 5, 2012

देहातीत मुस्कान



धीरे धीरे 
भूल जाती है 
दादी की वो बात 
की 
सब कुछ उसके करने से होता है 
सब कुछ उसे अर्पित कर दो 

कर रहा हूँ 'मैं'
यह भाव सहज ही घेर कर 
बढाता रहता है बंधन 
फिर कभी 
सफलता का आलिंगन  
और ढेर सारा क्रंदन 

घेरे में घिर कर 
दूर होती जाती है 
 दादी की बात 
और 
मुक्ति की वो सौगात 
जो 
मिली थी जन्म के साथ 

एक चक्र चलता है दिन-रात 
एक संघर्ष सा अपने साथ 

और कभी 
किसी निश्छल, 
कोमल क्षण में 
निर्मल मन करता
 यह अधीर प्रयास 
ढूंढने लगता 
वो खिड़की 
जहाँ से दादी की 
 देहातीत मुस्कान 
फिर से आ जाए मेरे पास 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
5 अक्टूबर 2012 


4 comments:

Arun sathi said...

aabhar....

Anupama Tripathi said...

सुंदर अभिव्यक्ति......
पूर्वजों को नमन ....!!

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर रचना।

सदा said...

बहुत ही भावमय करते शब्‍द

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