Sunday, October 7, 2012

अंतर उड़ने और चलने का




गूंजता है रात-दिन 
अब तुम्हारा बोध 
ऐसे 
जैसे बोल हवा के
बदल गए हों चलते चलते

यह कैसी
अबूझ सूझ है
जो सुनहरा कर देती है
हर क्षण

न जाने कैसे
हंसने-रोने से परे
मगन अपने आप में
बतियाता हूँ
अनंत से चुपचाप

और
चलता हूँ ऐसे
जैसे मिट गया हो
अंतर उड़ने और चलने का

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
6 अक्टूबर 2012
शनिवार


2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अनंत से बतियाना, समय की लहरों में उतराना।

Anupama Tripathi said...

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