गूंजता है रात-दिन
अब तुम्हारा बोध
ऐसे
जैसे बोल हवा के
बदल गए हों चलते चलते
यह कैसी
अबूझ सूझ है
जो सुनहरा कर देती है
हर क्षण
न जाने कैसे
हंसने-रोने से परे
मगन अपने आप में
बतियाता हूँ
अनंत से चुपचाप
और
चलता हूँ ऐसे
जैसे मिट गया हो
अंतर उड़ने और चलने का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
6 अक्टूबर 2012
शनिवार
बदल गए हों चलते चलते
यह कैसी
अबूझ सूझ है
जो सुनहरा कर देती है
हर क्षण
न जाने कैसे
हंसने-रोने से परे
मगन अपने आप में
बतियाता हूँ
अनंत से चुपचाप
और
चलता हूँ ऐसे
जैसे मिट गया हो
अंतर उड़ने और चलने का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
6 अक्टूबर 2012
शनिवार
2 comments:
अनंत से बतियाना, समय की लहरों में उतराना।
बोध से सुबोध ...
सुंदर रचना ...
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