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उस समय आसान था
अपनी
पसंद, नापसंद से बंधे होने की
दुर्बलता को स्वीकारना
पसंद के सारे रश्मि तंतु
पूरे आग्रह से
खिंच रहे थे
तुम्हारी ओर
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अब मुश्किल
यह है
की पसंद और नापसंद से परे होते हुए
कभी कभी
जान ही नहीं पड़ता
ये जीवन
जिसे मैं मेरा कहता हूँ
लगता तो मेरा ही है
मेरे ही नाम
लिखा जाता है
सफलता-असफ़लत का लेखा-जोखा
पर
जो कुछ होता है मुझसे
करने वाला मैं हूँ नहीं
और वह
जो जी रहा है जीवन मेरा
उसके बारे मैं
सब कुछ जानते हुए
कुछ भी तो नहीं जानता मैं
3
बात पूरी हो चुकी
पर कहे जाता हूँ
शायद
कहने -सुनने के खेल को देखने
किसी अनजान झरोखे से झांक ले वह
और
किसी तरह
हो जाए वह दुर्लभ संयोग
कि जहाँ से देख रहा हो मेरी और
उसी क्षण
मैं वहीं देखता होऊँ
और इस तरह
पा लूं उसकी झलक
जो मुझमें जी रहा है
और मेरा जीवन
एक नन्हा पर निराला रूप है
उसके होने का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
3 अक्टूबर 2012
2 comments:
यह विश्वास सदा अक्षुण्ण रहे।
सूक्ष्म होता विस्तार ....
या विस्तृत होता सूक्ष्म ....
सुंदर अभिव्यक्ति ....
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