Tuesday, October 2, 2012

प्रीत की आलोकित रश्मियाँ



प्रतिध्वनित होता है अर्थ 
कैसे मुझसे तुम तक 
तुमसे मुझ तक 
पुल इस अंतर्ध्वनि का बनाता है 
जो 
वह तो परे है 
ध्वनि से भी 


द्रश्य और वाणी से परे का 
वह  विस्तार 
सहज ही सूक्ष्म रूप में 
बैठ जाता है 
मेरी धडकनों पर 

गाता है 
कोई कालातीत गीत 
जिसे सुन कर 
छूट जाता है 
मेरा सन्दर्भबद्ध परिचय 

और यहाँ से 
उमड़ती हैं 
प्रीत की आलोकित रश्मियाँ 

इनमें 
घुल-मिल कर भी 
कैसे बाहर आ जाता हूँ 
अपने सीमित स्वरुप में 

यह एक से अनंत तक की यात्रा 
एक पहेली है 
सुलझ कर उलझ जाती है 
कभी सबके साथ एक 
कर जाती है 
कभी सबसे अलग-थलग 
सारे जग को 
मेरे लिए पराया बनाती है 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
2 अक्टूबर 2012



2 comments:

Shalini kaushik said...

very nice

Anupama Tripathi said...

अनसुलझी सी पहेली सुलझाते हुए चल रहे हैं हम सभी ॥

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