Saturday, October 20, 2012

पारदर्शी कोमलता

(चित्र- अनिल पुरोहित, जोधपुर)

लिख लिख कर 
देखता रहा वह स्वयं को 
और 
परिष्कार के संकेत 
मांगता रहा शब्दों से 

आज न ये आग्रह 
की अच्छी हो कविता 

न ये संकोच की 
खुले गगन में 
पहाड़ के ऊपर 
आँखों की कलम से 
हवा में लिखी जा रही कविता 
लिखते लिखते 
मिटती भी जाती है 

आज वह लिख नहीं रहा था 
स्वयं को लिखते हुए देख भर रहा था 
इस तरह 
न होते हुए 
स्वयं को देखने वाली इस पारदर्शी अनुभूति में 
कौन कौन शामिल हो सकता है 
इस प्रश्न का उत्तर भी 
मालूम था उसे 

जो जो अपने परिचय का आग्रह छोड़ कर 
पारदर्शी कोमलता में 
अनंत की बांसुरी सुनने में तन्मय हो पायेगा 
उसे ही इस कविता का स्वाद आएगा 

वह जानता था 
ऐसी कविता कोई लिखता नहीं 
बस 
देखता है 
कविता को लिखे जाते हुए 
और देख देख कर धन्य हो जाता है 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
20 अक्टूबर 2012 


1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

पारदर्शी कोमलता..मननीय..

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