यह जो धुन है
कुछ करने की
करते हुए सकारात्मक कर्म
हो जाता है
जो सुन्दर विन्यास भीतर
इसे कह लो
चाहे आनंद, संतोष,तृप्ति या कृपा का अविर्भाव
जागता है
यह जो अहोभाव
शुद्ध कर्म के साथ
इसी में अन्तर्निहित है
एक सूक्ष्म तंतु
हमें
मनुष्य होने की पराकाष्ठ का परिचय करवाता
इस तरह
ऊर्जा का उर्ध्वमुखी प्रवाह
जिसके देखे से
होता है तरंगित
उसकी ओर देखते रहने में
आ जाती है
यह जो अड़चन सी
इसे लेकर
खेलते खेलते
सीमातीत का सान्निध्य भूल जाता है
इस तरह एक खिलाड़ी
स्वयं खिलौना बन जाता है
अशोक व्यास
12 अक्टूबर 2012
न्यूयार्क, अमेरिका
1 comment:
भ्रम हो जाता है कि हम खिलाड़ी हैं या खिलौने।
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