यह जो एक रस है
तुम्हारे होने का
क्या क्या शामिल है इसमें
कभी सोच कर देखना
कहीं न कहीं
धरती के होने का प्रमाण मिलेगा
तो कहीं आकाश का स्थान मिलेगा
साथ ही साथ
जल, अग्नि और वायु भी
तो वह सब जो चारों और है हमारे
भीतर भी वही है
पर कुछ है
जो अलग करता है
हमें सबसे
एक इकाई बनाता
व्यक्तित्व का रूप दिलाता
इस अलगाव के पीछे भी तो
रचने वाले का कुछ न कुछ मंतव्य होगा
वर्ना क्यूं होता तुम्हारा यह रूप
धरे रहते
धरती और आकाश
अपने-अपने विस्तार में
पर तुम हो
इस होने के पीछे जो रस है
उसकी गहराई में
जिसकी परछाई है
उसे देखने के लिए है
बाज़ी बिछाई है
बाज़ी बिछाने वाला भी वही है
और अड़चने बनाने वाला भी वही
पर सुना है
वो चाहता है
इन सब बाधाओं को पार कर
मैं उसे देख लूं
और
ये भी सुना है
की देखने से मिट जाता है मेरा उससे यह अलगाव
अब क्या है की
हो गया है
इतना लगाव
इस अलगाव से
कि
चाहे वो सुन्दरतम हो
चाहे वो समाधान हो हर समस्या का
मैं
अपनी छोटी- छोटी
हार-जीत के खेल में मगन
नकारता हूँ
उसका होना
नहीं सोचता
कहाँ से आया है
मेरे होने का रस
बिना सोचे
काल का हाथ पकड़
एक दिन से दूसरे दिन तक
छलांग लगा लेता हूँ बरबस
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
6 सितम्बर 2012
5 comments:
पर सुना है
वो चाहता है
इन सब बाधाओं को पार कर
मैं उसे देख लूं
और
ये भी सुना है
की देखने से मिट जाता है मेरा उससे यह अलगाव
बहुत ही सुन्दर सुना है आपने.
'श्रुति' का श्रवण और रसपान करना परम
सौभाग्य है.
आपने सुने को सुनाया
बहुत ही आनन्द आया.
हार्दिक आभार,अशोक भाई.
वाह जी
बहुत सुंदर
क्या बात
न आगे देखता हूँ,
न पीछे देखता हूँ,
स्वयं में मगन रहता हूँ,
ईश्वर की सुध कब आये।
खूबसूरत!
आजकल की भागम-भाग में अपने अस्तित्व को भूलते जा रहे हैं हम.. ज़रूरी है चिंतन और मनन की..
चाहे वो सुन्दरतम हो
चाहे वो समाधान हो हर समस्या का
मैं
अपनी छोटी- छोटी
हार-जीत के खेल में मगन
नकारता हूँ
उसका होना
वास्तविक स्थिति का चित्रण किया है आपने
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