जीवन न मुट्ठी में है
न आसमान में
छुपा हुआ है
संकेत जीवन का
उस रिश्ते में
जो मुट्ठी बनाती है
आसमान से
2
जानना कभी पा लेना है
और कभी
जानते जानते
खो भी जाता है
वह
जिसे पाया हुआ मान बैठते हैं हम
3
सच कहूं
चाहे निकला हूँ
मगन आपने आप में
कुछ ऐसे की
अनजान हूँ
किसी के होने न होने से
पर मेरी गति में
शामिल रहा है
तुम्हारे होने या ना होने का बोध
ना जाने क्यूं
ऐसा है की
मेरे जीवन को
अर्थपूर्ण बनाता है
वह बेनाम सा कुछ
जिसकी पहचान
कभी-2 छू भले ही जाती है
पर पकड़ में कभी नहीं आती है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
23 जुलाई 2012
3 comments:
'जानना कभी पा लेना है
और कभी जानते जानते खो भी जाता है
वह जिसे पाया हुआ मान बैठते हैं हम'
जानना और मानना.
'आधारहीन' को जब मानते हैं
फिर जानते हैं तो माना हुआ खो भी सकता है.
क्यूँ कि मानते समय जो अधूरा
ज्ञान था वह सही जानने पर
'आधारहीन' या भ्रम का निवारण
हो जाता है.
उस बेनाम 'जगदाधार' को गुरु/शास्त्र के 'शब्द' प्रमाण से मानना ही होता है और निरंतर ज्ञान के अनुसंधान से 'मानकर' ही चलते रहना पड़ता है उसकी पहचान को छू पाना परम सौभाग्य है.
और उसकी 'पहचान का छूना' भी उसे पकड़ने से कम नही.
Ashok ji,please comment on my comment.
कुछ जाना है, कुछ पहचाना,
जीना है पर हाथ न आना।
वाह
क्या कहने
बहुत सुंदर
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