Friday, April 13, 2012

खोने-पाने से परे



सपने 
जिसके भी
जहाँ भी
जैसे भी
होते हैं पूरे

बहती है
उनके पीछे
नदी सी एक
समर्पण की
सौंदर्य 
मनुष्य होने का
निखरता है
उस निष्ठावान प्रक्रिया में
जो
साकार करती है
सपनो को


डर सपनो के टूटने का
डर उड़ने से पहले
पंख फडफडा कर
उड़ न पाने का
छुपा देता है
सपनो को कई बार

आज
उस डर के पार
असफलता को  अपना नया चेहरा दिखाने
जब झांकता हूँ
अपने भीतर
दिखाई देता है
अनंत
उसी आभा के साथ
मुस्कुराता हुआ
जो
सपने दिखाती
पूरे करवाती
और
खोने-पाने से परे 
मेरा एक
नित्य परिपूर्ण रूप 
मुझे दिखा कर
याद दिलाती है मुझे
की
पग पग पर
मुक्ति  सहचरी है मेरी


मुक्ति न सपने पूरा करने में है
न उन्हें छोड़ देने में
शायद
मुक्ति की गोद में
खेलते हैं 
स्वप्न 
जैसे
सागर में
उभरती-सिमटती हैं
लहरें


अनंत के श्री चरणों में
अर्पित कर
अपने स्वपन
अपना सारा कल्मष, सारा अधूरापन
आज
इस क्षण
मैं जैसे गंगा नहाया
या शायद
गंगा को
अपने अंतर्मन में
नित्य निवास के लिए
बुलाया



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ अप्रैल २०१२ 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

जो पाना है, वह गँवाना है
जीवन तो खोने पाने से परे है...सच है...

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