और फिर एक दिन अचानक
सब कुछ छूट जाने की कसक
की सघन अनुभूति को भोगता
वह
रुकते-चलते
चलते-रुकते
आ पहुंचा वहां
जहाँ
फिर से
प्रश्न
स्वयं से छूट पाने
की सजगता का था
खेल
रोने-धोने
तड़पने-छटपटाने के
छोड़ते हुए
वह
फिर एक बार
उस पेड़ की छाँव में
जा बैठा
जहाँ
छाया में
घुला था
चिर मुक्ति का आश्वासन
मूँद कर आँखे
वह
अपने आप में मुस्कुराया
जैसे
अनंत ने कोइ गीत
उसके साथ गुनगुनाया
अशोक व्यास
९ फरवरी २०१२
3 comments:
सुंदर अभिव्यक्ति ....
सादर.
साधु-साधु
किसी के साथ रहने का एहसास..
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