Friday, February 10, 2012

अपने आप में मुस्कुराया


और फिर एक दिन अचानक
सब कुछ छूट जाने की कसक
की सघन अनुभूति को भोगता
वह
रुकते-चलते
चलते-रुकते
आ पहुंचा वहां
जहाँ 
फिर से
प्रश्न
स्वयं से छूट पाने
की सजगता का था

खेल
रोने-धोने
तड़पने-छटपटाने के
छोड़ते हुए
वह
फिर एक बार
उस पेड़ की छाँव में
जा बैठा
जहाँ
छाया में
घुला था
चिर मुक्ति का आश्वासन
मूँद कर आँखे
वह
अपने आप में मुस्कुराया
जैसे
अनंत ने कोइ गीत 
उसके साथ गुनगुनाया


अशोक व्यास
९ फरवरी २०१२ 

3 comments:

Anupama Tripathi said...

सुंदर अभिव्यक्ति ....
सादर.

Arun sathi said...

साधु-साधु

प्रवीण पाण्डेय said...

किसी के साथ रहने का एहसास..

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...