छूटने और छोड़ने का वक्त
सहसा
आ धमकता है
देहलीज़ पर जब
हम
मोहलत मांगते हैं
थोड़ी और तैय्यारी की
वह मुस्कुरा कर
मान भी जाता है
इधर-उधर टहल आता है
ये जानते हुए भी
की
हम अपने इसी घर को
स्थाई निवास मान कर
जीते जीते
इतने अभ्यस्त हो चले हैं
सब निर्देशांकों के
की
सजगता से
छोड़ने का हुनर
सीख ही नहीं पाते
जब तक की
वक्त का कोइ कारिन्दा
जबरन हाथ पकड़ कर
हमें दिखला दे
की
छोड़े बिना गति नहीं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२६ जनवरी 2012
2 comments:
जहाँ मन स्थिर किया वही सरक लिया, जो स्थिर था, वह दिखा नहीं..
साधु-साधु
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