Friday, November 25, 2011

होने ना होने से परे का होना

 
गाय के थन से निकलते
ताज़े दूध की तरह
यह जो
एक गर्माहट है
शीतलता के प्रादुर्भाव की
इसको 
कैसे जगा देता है
मेरे भीतर 
तुम्हारे स्मरण
 
 
किस पात्र में
सहेजूँ
यह अमृत की बूँदें
जिन्हें सहज ही
लुटा गयी 
करूणामय मुस्कान तुम्हारी
 
 
विस्तार का कोइ सूत्र नहीं
आनंद उद्गम के लिए
हो नहीं सकता
कोइ निश्चित समीकरण
 
यह जो
नित्य नूतन सम्बन्ध है
मेरा तुमसे
इस सम्बन्ध के इतिहास में
या इसके भविष्य में नहीं
 
इसके वर्तमान में
 रस आने लगा है अब
दिख रहा है 
अपनी सम्पूर्ण आभा के साथ जीवन

इसे परिभाषित नहीं करना
बस हो रहना है
तन्मय
और
यूं ही स्थिर गतिमान
जब तक भी हो पाए ऐसा
होने ना होने से परे का होना
 
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ नवम्बर २०११        

4 comments:

Rakesh Kumar said...

किस पात्र में
सहेजूँ
यह अमृत की बूँदें
जिन्हें सहज ही
लुटा गयी
करूणामय मुस्कान तुम्हारी

उसकी करुणामय मुस्कान अमृत की बूंदें लुटाए.
पात्र की क्या जरुरत जब आप ही अमृत हो जाएँ.

'नया दिन नई कविता'पर इसीलिए तो आप नित अमृत रस बरसाएं.
सौभग्यशाली हम हैं,जो इन बूंदों का रसपान कर पायें.

Anupama Tripathi said...
This comment has been removed by the author.
Anupama Tripathi said...

26/11/2011को आपकी पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

प्रवीण पाण्डेय said...

जब हृदय ही पात्र बन जाये तो उसमें सब समाने लगता है।

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