गाय के थन से निकलते
ताज़े दूध की तरह
यह जो
एक गर्माहट है
शीतलता के प्रादुर्भाव की
इसको
कैसे जगा देता है
मेरे भीतर
तुम्हारे स्मरण
२
किस पात्र में
सहेजूँ
यह अमृत की बूँदें
जिन्हें सहज ही
लुटा गयी
करूणामय मुस्कान तुम्हारी
३
विस्तार का कोइ सूत्र नहीं
आनंद उद्गम के लिए
हो नहीं सकता
कोइ निश्चित समीकरण
यह जो
नित्य नूतन सम्बन्ध है
मेरा तुमसे
इस सम्बन्ध के इतिहास में
या इसके भविष्य में नहीं
इसके वर्तमान में
रस आने लगा है अब
दिख रहा है
अपनी सम्पूर्ण आभा के साथ जीवन
इसे परिभाषित नहीं करना
बस हो रहना है
तन्मय
और
यूं ही स्थिर गतिमान
जब तक भी हो पाए ऐसा
होने ना होने से परे का होना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ नवम्बर २०११
4 comments:
किस पात्र में
सहेजूँ
यह अमृत की बूँदें
जिन्हें सहज ही
लुटा गयी
करूणामय मुस्कान तुम्हारी
उसकी करुणामय मुस्कान अमृत की बूंदें लुटाए.
पात्र की क्या जरुरत जब आप ही अमृत हो जाएँ.
'नया दिन नई कविता'पर इसीलिए तो आप नित अमृत रस बरसाएं.
सौभग्यशाली हम हैं,जो इन बूंदों का रसपान कर पायें.
26/11/2011को आपकी पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
जब हृदय ही पात्र बन जाये तो उसमें सब समाने लगता है।
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