Thursday, November 24, 2011

मंगल मुस्कान


उसने खींच कर
इतनी फैला दी मेरी बाहें
की
धरती के इस छोर से उस छोर तक
नाप लिया मैंने
एक क्षण में
सारा संसार
 
'अब कहो?'
प्रश्न उसका
मुस्कान भरा
छुड़ा रहा था
वो सब बंधन
जिनकी शिकायत से पुता मन लेकर
पहुंचा था उसके पास
 
मुक्ति के साथ
उपहार में
सहज चली आई 
निर्भयता, उदारता
और
अपार सहनशक्ति
 
मैंने उसे जब कृतज्ञता के साथ देखा
मुस्कुरा कर
उसने दे दिया सूत्र
इतने दुर्लभ उपहार को सहेज कर रखने का
 
'अभ्यास'
करते रहना
इसी तरह
साँसों के दोनों छोरों को
छूकर 
अपनी गरिमा को पहचानते रहने का 'अभ्यास'
 
और फिर
उसके साथ
मौन नदी के किनारे
बैठे बैठे
न जाने कितने युग बीते
निश्चल रह कर भी
अपने कई रूपों को
खेलते हुए देखता रहा हूँ
न जाने कितनी शताब्दियों से
 
जब जब खेलते खेलते थक जाता हूँ
इस नदी के तट पर सुस्ताता हूँ
स्वयं को अपने साक्षी रूप की याद दिलाता हूँ
और बस, दूर दूर तक मंगल मुस्कान लुटाता हूँ
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
                      २४ नवम्बर 2011                       

3 comments:

Prakash Jain said...

जब जब खेलते खेलते थक जाता हूँ
इस नदी के तट पर सुस्ताता हूँ
स्वयं को अपने साक्षी रूप की याद दिलाता हूँ
और बस, दूर दूर तक मंगल मुस्कान लुटाता हूँ

wah...bahut khub....

http://www.poeticprakash.com/

Rakesh Kumar said...

स्वयं को अपने साक्षी रूप की याद दिलाता हूँ
और बस, दूर दूर तक मंगल मुस्कान लुटाता हूँ

आपकी मंगल मुस्कान से मंगलमय हो गया है
यह क्षण.

काश! हर क्षण आपकी ही मुस्कान नजर आये.
सद् गुरूदेव जी की कृपा ही हर ओर लहराए.

प्रवीण पाण्डेय said...

समर्पण का विचार ही पर्याप्त है आधार के लिये।

सुंदर मौन की गाथा

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