Wednesday, November 23, 2011

जिसकी महिमा से सब हलचल है

 
इस बार जब सूरज निकला
और वह मुस्कुराया
किरणों के साथ गुनगुनाया
तो वह जानता था
किरणों के उजलेपन में
प्रसरण के साथ साथ 
संकुचन को स्वीकारने की ताकत भी शामिल है
 
इस बार जब उसने
खिलते फूल की पंखुरियों से झरते
आनंद के रस का स्वाद लिया
प्रसन्नता के गीतों संग
थिरकती पवन का मस्ती के साथ अभिवादन किया
उसे स्मरण था
जहाँ से आनंद झरता है
वो पांखुरी भी झड जाने वाली है
और वो जानता था
प्रसन्नता की सौरभ लुटाती पवन
सदा ऐसे ही नहीं रहने वाली है
 
 
इस बार
उसने तय कर लिया था
जो जैसा है
उसे वैसे अपनाना है
अपनी तरफ से
अपेक्षा का लबादा 
नहीं ओढ़ाना है
 
अपनी परम मुक्ति की समझ को
हथेली पर बुलबुले की तरह सजाये
जब वो पर्वत शिखर की और बढ़ रहा था
इस बार
वो जानता था
उससे परे कुछ है
जो सुकोमल सतह को
वज्र बना सकता है
और किसी वज्र को
नैनों की आंच से ही पिघला सकता है


इस बार
जब सूरज निकला तो
किरणों के साथ साथ
उसने स्मरण रखा
कुछ है किरणों के परे
जिसकी महिमा का उदघाटन करने ही
निकलता है दिन
 
इस बार
वो सजगता से
सबके साथ
हर हलचल में
उसकी महिमा गा लेने में
तन्मय हो जाना चाहता था
जिसकी महिमा से सब हलचल है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ नवम्बर २०११  
 
     
     

8 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर..

Anupama Tripathi said...

सत चित्त आनंद .....
बहुत मधुर गान करती हुई रचना ...!!

कुमार संतोष said...

बेहतरीन रचना दिल को छु गई !

Jeevan Pushp said...

बहुत लाजबाब प्रस्तुति !
बधाई !

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत ही बढ़िया सर!

सादर

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

उससे परे कुछ है
जो सुकोमल सतह को
वज्र बना सकता है
और किसी वज्र को
नैनों की आंच से ही पिघला सकता है

बहुत ही सुन्दर...
सादर...

Anju (Anu) Chaudhary said...

बहुत खूब...उम्दा

अनुपमा पाठक said...

सुन्दर!

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