उस दिन
वो न नहाया
न उसने दाढ़ी बनाई
न सूरज को अर्ध्य दिया
और मंदिर की सीढ़ियों को
दूर से देखते हुए
एक पेड़ के सहारे बैठ गया
अपने आप में गुम
उस दिन
वो नहीं चाहता था
ईश्वर के पास जाना
आरती के समय घंटा बजाना
और
अपने अदृश्य सौभाग्य पर इठलाना
उस दिन
न जाने क्यूं
सारे नियम छोड़ कर
वो मुक्ति के द्वार को थपथपा लेना चाहता था
अपने सहज प्रवाह में
पूरी उदासी और पूरे अज्ञान के साथ
उस दिन
वो नदी के तट पर
अकेला आंसू बहता रहा
ना जाने किस बात पर
और
उसे अच्छा लगा
कोइ उसके आंसू पूंछने नहीं आया उसके पास
न किसी ने उससे रोने का कारण पूछा
इस बार
सब प्रयास छोड़ कर
बिना किसी पतवार के
बैठ कर नाव में
जब चल निकला वो
पूरी तरह
धारा को समर्पित होकर
इस किनारे तक लौटने की आश्वस्ति
नहीं थी उसमें
पर एक उत्कंठा थी
सांचे के पार
अपना अस्त्तित्व देख लेने की
फिर
न जाने कैसे
एक पल
छीन ले गया उससे
दिन भर का खोयापन
न जाने कहाँ से
फिर भर गया उत्साह उसमें
मंदिर के घंटों की आवाज़ ने
फिर खींच लिया उसे
या शायद
खिंचाव में
अपने होने का अर्थ ढूंढ लेने के क्रम को अपनाने का भाव
फिर से जाग्रत हो गया था उसमें
२
इस बार वो पहले से अधिक शांत था
उसके मौन में अब भी बहुत कुछ अनगढ़ था
पर अब अपने अकेलेपन में
दिख रहा था उसे
विस्तार उस आकाश का
जो हमेशा एकाकी रहता है
पर किसी से अपने अकेलेपन की व्यथा
नहीं कहता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ नवम्बर २०११
2 comments:
अब अपने अकेलेपन में दिख रहा था उसे विस्तार उस आकाश का जो हमेशा एकाकी रहता है पर किसी से अपने अकेलेपन की व्यथा नहीं कहता है
लाजबाब अकेलापन.
अन्दर किसी को ढूढ़ लेना कहाँ अकेलापन कहलाता है?
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