देख-सुन कर
सीखा था
मटकी उठाना
पगडंडी पर समूह में चलना
कुछ कुछ बतियाना
कुछ कुछ खिलखिलाना
और
पनघट पर सुस्ताना
फिर
छलछलाते जल से
जीवन की झंकार सुनते हुए
धीरे धीरे घर लौट आना
कितना तृप्तिदायक अनुभव था
माथे पर मटकी धरे
धीरे धीरे
सारे घर के लिए
धरती की कोख से
जीवन की रसमयता का उपहार लेकर आना
२
और उस दिन
जब पहली बार
एक कंकर ने
अचानक तोड़ डाला मेरी मटकिया को
कनखियों से देख लिया था
मोर मुकुट वाले सांवरे को
और तब
मेरे तन को
जल से तर-बतर तन को
कुछ और भी छू गया था
तृप्ति से भी बड़ी तृप्ति देता
किसी की आँख का स्पर्श
पर ये न मालूम था
की
जन्म-जन्मातर तक
सुरभित रहेगा
साँसों में भाव
उस स्मृति का
जब
टूटने और भीगने के साथ-साथ
छूटने का और मुक्त होने के आनंद को भी
जान लिया था सहसा
और यह सीख किसी के कहने से नहीं
बस उसके देखने मात्र से मिल गयी थी मुझे
जैसे
शाश्वत दर्पण में मिल जाए
किसी को
अमिट चेहरा अपना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
15 नवम्बर 2011
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