आनंद का ये स्वाद कहाँ से आता है
अनुभूति में उतरे किसकी गाथा है
असर बाद में होता उसकी बातों का
अर्थ खोल कर शब्द कहीं उड़ जाता है
सहज प्रेम की नदिया कौन बहाता है
करूणा से ये कौन मुझे छू जाता है
मंगल गान गुंजरित होता साँसों में
व्योम तनु जब अंतस में मुस्काता है
ये भाव नाम के पार मुझे ले जाता है
ह्रदय मधुर ठंडक से भर भर जाता है
नाम रूप से परे भी सत्ता है उसकी
रचा-बसा जो मुझमें, मुझे रचाता है
चलो, चलो, वो स्वयं बुलाने आता है
मैय्या बन कर निद्रा दूर भगाता है
कैसे समझूं क्या मंशा आखिर उसकी
जगा रहा है वही जो मुझे सुलाता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, १३ नवम्बर २०११
3 comments:
न जाने किसका अर्पण हम।
चलो, चलो, वो स्वयं बुलाने आता है
मैय्या बन कर निद्रा दूर भगाता है
कैसे समझूं क्या मंशा आखिर उसकी
जगा रहा है वही जो मुझे सुलाता है
सद् गुरदेव जी को सादर नमन.
आनंद का ये स्वाद कहाँ से आता है
ये अनुभूति का विषय है... कौन कह पायेगा भला!
सुन्दर रचना!
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