Tuesday, November 8, 2011

इस चुप्पी का संकोच


इस बार भी
दिख तो नहीं रहा था रास्ता
पर किसी ने मिटा दिया था
अनिश्चय क़दमों का

न जाने कैसे
आश्वस्ति हो चली थी सहचरी
की
गिरना तो नहीं है
बढ़ना तो है ही

अँधेरे में भी
जाग्रत है निरंतर 
एक वह
मुझे हर चोट से
बचाने के लिए


इस बार भी
कहने को कुछ नहीं था
बस एक चुप्पी थी
पर किसी ने
मिटा दिया था
इस चुप्पी का संकोच

सुदामा की तरह
छुपा कर नहीं रखा
अपना शब्दहीन होने का भाव
ज्यों को त्यों
दे दिया उसे
अपना सीमित आकर

और फिर ऐसे मुस्कुराया निराकार
की सभी अवरोधों के साथ भी
लम्बा सा रास्ता
सहज ही हो गया पार



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
                     

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अपनी सीमितता व्यक्त कर देना ही ठीक है।

Rakesh Kumar said...

और फिर ऐसे मुस्कुराया निराकार
की सभी अवरोधों के साथ भी
लम्बा सा रास्ता
सहज ही हो गया पार

अदभुत,अनुपम और लाजबाब प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

आपकी सुन्दर प्रेरणा से मैंने दो पोस्ट
'सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन-४' व
'सीता जन्म आध्यात्मिक चिंतन-५'लिखीं हैं.

आपका इंतजार है इन पोस्टों पर अपने
अमूल्य विचार व अनुभव से अवगत कराने के लिए.

विशेष अनुरोध है आपसे,अशोक जी.

यदि आप नही आते हैं तो मैं समझूंगा
कि आपको कोई न कोई नाराजगी है मुझ से.

सादर.

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