अब
अपने हाथों की लिखाई का मोह भी
छूट रहा है
धीरे धीरे
शायद अपने लिखे को सुरक्षित और
व्यवस्थित
रखने में
अधिक समझ और स्थान, दोनों चाहिए
और
ये आश्वस्ति भी
की 'हमारे लिखे शब्दों' का
किसी के लिए
वैसा 'भावनात्मक महत्त्व' है
जैसा हमारे लिए हुआ करता था
टेक्नोलोजी
धीरे-धीरे
चुस्त जीवनशैली
सुविधाओं के साथ इस तरह घोल रही है
हमारे जीवन में
की
भावनाओं को पिछली सीट पर बिठा कर
स्वीकृत समूह का हिस्सा बनने की बाध्यता में
हम बदलते जा रहे हैं
तुम्हारे साथ
आज इस बदलाव को पहचानने बैठा
तो पुराने कितने किस्से याद आये
जिनमें 'मेरी लिखाई' के वो सब ख़त भी थे
जो बरसों बरस साथ रहे तुम्हारे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० सितम्बर २०११
3 comments:
सब दुनिया को अपने अनुसार बनाना चाहते हैं।
यादे सहेजी हुयी साथ साथ चलती है , बेहतर काव्य रचना
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