Saturday, September 10, 2011

अपने हाथों की लिखाई



 
 
अब
  अपने हाथों की लिखाई का मोह भी
छूट रहा है 
 धीरे धीरे  
   शायद अपने लिखे को सुरक्षित और 
व्यवस्थित
रखने में
 अधिक समझ और स्थान, दोनों चाहिए
 
 और 
 ये आश्वस्ति भी
  की 'हमारे लिखे शब्दों' का
किसी के लिए 
 वैसा 'भावनात्मक महत्त्व' है
 जैसा हमारे लिए हुआ करता था
 
टेक्नोलोजी 
  धीरे-धीरे
  चुस्त जीवनशैली 
  सुविधाओं के साथ इस तरह घोल रही है 
  हमारे जीवन में
 की 
भावनाओं को पिछली सीट पर बिठा कर
    स्वीकृत समूह का हिस्सा बनने की बाध्यता में
हम बदलते जा रहे हैं
 
 
तुम्हारे साथ 
  आज इस बदलाव को पहचानने बैठा
तो पुराने कितने किस्से याद आये
  जिनमें 'मेरी लिखाई' के वो सब ख़त भी थे
   जो बरसों बरस साथ रहे तुम्हारे


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० सितम्बर २०११  


3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सब दुनिया को अपने अनुसार बनाना चाहते हैं।

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

यादे सहेजी हुयी साथ साथ चलती है , बेहतर काव्य रचना

सुंदर मौन की गाथा

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