Tuesday, September 6, 2011

उसकी अंगुली थाम कर

(चामुंडा माता का मंदिर, मेहरानगढ़ दुर्ग, जोधपुर - फोटो विशाल व्यास )

इस बार
उसकी अंगुली थाम कर
 चलते- चलते  
जरूरी नहीं लगा 
 की कद बढ़ा कर
अपने आप पर निर्भर होने की
अनुभूति लिए
दिशाओं से
 चुनौतियों की नई सौगात ले लूं

  इस बार
  उसकी अंगुली थाम कर
 चलते -चलते
 ना जाने कैसे
मिट सा गया
धरती और गगन का भेद

 मगन उसके साथ से झरती आश्वस्ति में
जानता था
  बाल रूप में  
रहने तो न देगी वो मुझे देर तक
 समझ गया था 
 परिवर्तन उस अपरिवर्तनीय का खेल है
 और 
 सोचने लगा था
  मुझे भी बना लेना है
 कोई ऐसा खेल
 की चाहे जो रूप हो मेरा
भाव यह जाग्रत रहे
 की  
    उसकी अंगुली थाम कर चल रहा हूँ मैं 
 और
   संबल के साथ दिशा संकेत भी दे रही है

 उसकी अदृश्य मौन उपस्थिति




अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ सितम्बर २०११   

2 comments:

Rakesh Kumar said...

और
सोचने लगा था
मुझे भी बना लेना है
कोई ऐसा खेल
की चाहे जो रूप हो मेरा
भाव यह जाग्रत रहे
की
उसकी अंगुली थाम कर चल रहा हूँ मैं
और
संबल के साथ दिशा संकेत भी दे रही है

उसकी अदृश्य मौन उपस्थिति

वाह! बहुत सुन्दर सोच और अहसास हैं ,आपके.
अदभुत,अनुपम,मनोहारी.

प्रवीण पाण्डेय said...

मौन साथ, सदा ही प्रेरित करता है।

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