Friday, September 2, 2011

आत्म-सौन्दर्य में लीन



 खेल खेल में
बनाया माटी का सुन्दर घर
और फिर
 चल दिया, घर बिखेर कर 

  बना कर तोड़ने में 
ना कोइ दुःख, ना अफ़सोस 
  खेल तो खेल है 
  इसमें किसी का क्या दोष 


 हम जो घर बनाते हैं
 उससे चिपक जाते हैं 
 उससे परे हमारा होना
 सोच ही नहीं पाते हैं 



     धीरे धीरे,
अपना घर, अपना काम
अपने सम्बन्ध, अपना नाम 
  इनमें बंध कर, लग जाता
चेतना के विस्तार पर विराम

    फिर गुरुकृपा से, किसी क्षण 
 जब हम आत्म-दरसन पाते हैं
आत्म-निर्भरता का मर्म
   थोडा-थोडा समझ पाते हैं


 अनंत स्पर्श से, चेतना की 
सीमातीत पहचान पाते हैं
        तब आत्म-सौन्दर्य में लीन
      जगजननी की महिमा गाते हैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
 २ सितम्बर २०११
  (स्वामी श्री ईश्वरानन्द गिरिजी महाराज के "देवी तत्त्व" पर
 प्रवचन श्रवण के प्रभाव से प्रकट अभिव्यक्ति)

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

स्वयं को पहचानना कितना आवश्यक है।

Anupama Tripathi said...

तब आत्म-सौन्दर्य में लीन
जगजननी की महिमा गाते हैं

तब ही शायद हम दूसरे की अच्छाई और उसका दृष्टिकोण भी समझ पाते हैं ...

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