तय बस इतना था
की कुछ तय नहीं करेंगे,
अपनाते रहेंगे
आने वाले पलों को,
उँडेल देंगे
उन पर अपनी अंतस की आभा,
तय बस इतना था
की न कुछ पकड़ेंगे
न किसी से पकडे जायेंगे
पर जिये कुछ ऐसे
की हर दिन तय करते रहे
अपनी दीवारें,
सीमाओं के घेरे में
बनाते रहे
सपनो के महल,
अनदेखा कर वर्तमान,
लगे रहे
अज्ञात भविष्य को पकड़ने में,
हार और जीत के बीच
झूलते हुए
मिल ही ना पाया
इतना अवकाश
की कृतज्ञता से
उसे देख पाते
जिसने हार- जीत का खेल
रचा कर
हमें ललचाया था
और खेल-खेल में
अपने साथ हमें भी
हमसे छुपाया था
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, २७ अगस्त २०११
1 comment:
सब लगता है खुला खुला सा।
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