संवाद नदी के सूख जाने से
घना एकांत उभर आता है
जैसे कोई काल कोठरी में
बंदी बना जाता है
जैसे एकाएक
फूलों की घाटी का रास्ता
कहीं खो जाता है
ऐसा
जैसे बारिश की बूंदों को
कोई बीच रास्ते में ही
चुराता है
इस तरह असहज
करता अनुभव
ये सिखाता है
की पूर्णता का प्रतिबिम्ब
पूर्णता का पर्याय नहीं
बन पाता है
अपने आप पर निर्भर होकर ही
सम्पूर्णता का वह वैभव खुल पाता है
जिसे छूकर
अक्षय प्रीत का झरना
बह आता है
जब जब
आत्म-परिचय का बोध
छूट जाता है
इस झरने का बहाव
कोई
लूट जाता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ जून २०११
2 comments:
अच्छे मनोभाव , प्रतीकों का सुन्दर प्रयोग
संवाद टूटने पर कुविचार हावी हो जाते हैं।
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