यह कैसे
सहसा
अपनी बाँहों में भर कर
उजियारे का शीतल स्पर्श
उंडेल कर मेरी साँसों में
खोल कर अवगुंठन
शिखर की ओर
लिए चलते हो
तुम मुझे
मुझ से भी मुक्त कर
विस्तार, उल्लास,
अनिर्वचनीय शांति का
मद्धम गतिमान झरना सा
प्रसन्नता के नए पुष्प जो
खिल गए हैं
धरा के इस छोर से
उस छोर तक
इन सबको
तुम्हें अर्पित करने की चाह लिए
मैं विलीन क्षितिज में
मुस्कुरा रहा हूँ
व्योम तन लेकर
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, २८ जून २०११
1 comment:
हाथ खोल बाहों में आसमान भर लेना चाहता हूँ।
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