कुछ लिखने की चाह से भर जाता हूँ
खाली कागज़ देख के डर जाता हूँ
न जाने हो गया क्यूं कर ऐसा
शब्द के साथ ही घर जाता हूँ
तुम्हें मालूम हो ना पायेगा
हो के अदृश्य किधर जाता हूँ
उससे बनने का हुनर सीखा है
जिसकी बातों पे बिखर जाता हूँ
मिले है तेरा ही हंसता चेहरा
लहर के साथ जिधर जाता हूँ
अब तुझे ढूँढने को ऐसा है
अपने भीतर ही उतर जाता हूँ
वो ही छलता रहा है सदियों से
जिससे मैं सच की खबर पाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ अपिर्ल २०११ को लिखी
७ जून २०११ को लोकार्पित
2 comments:
न जाने हो गया क्यूं कर ऐसा
शब्द के साथ ही घर जाता हूँ
वाह अशोक जी बेहतरीन , अभिवादन
बेहतरीन अभिव्यक्ति
सादर- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
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