Saturday, June 18, 2011

तुम्हारी वो बात





अब हर दिन
हर अनुभव
प्रमाणित करता है
तुम्हारी वो बात
जो तुमने कई शताब्दियों पहले कह दी थी

वही बात
तुम्हारे सत्य में झिलमिलाती 
सूरत की किरणों में नहाती
पवन के झकोरे पर
खिलखिलाती
पत्तियों पर भी
नृत्य कर रही है

मेरे एकांत में
यह जो शाश्वत के साहचर्य की अनुभूति है

इसे पीछे भी
वही दृष्टि है
जिसे नदी- नाले
सागर- पर्वत 
कोई भी तो नहीं रोक पाया

इसकी संगत में
हर सांस के साथ
एक उत्सव सा है
जिस पूर्णता का
इसे कैसे सुरक्षित रख पाती है
तुम्हारे द्रष्टि

सोच सोच कर
मुस्कुराता हूँ
तुम्हारे दरबार में
झुक-झुक जाता हूँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, १८ जून २०११  
           

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सदा संग रहने वाला वो, कुछ न कुछ कहता रहता है।

Vivek Jain said...

बहुत बढ़िया,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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