Wednesday, June 15, 2011

आग्रहों का बंधन


पहुँच कर
कहाँ, कितनी
देर ठहरना
इसकी समझ
अनुभव संपत्ति पर
कितना प्रभाव डालती है
इसका पता जब चल जाता है
जीवन का स्वरुप बदल जाता है


मन का मौसम हाथ तुम्हारे
पतझड़-वसंत, सब साथ तुम्हारे

तुम अनंत की दीपशिखा हो
कर लो अपने वारे-न्यारे


जीवन बंधन से नहीं
बंधन में नहीं
मुक्ति में है
विस्तार में है

आग्रहों का बंधन जो छोड़ पाया
वो विराट को भी अपनी तरफ मोड़ पाया


जो जो अपेक्षा की खींच-तान कर लेता है पार 
उसके लिए हर पल लेकर आता है मधुर बहार
जो 'होने' 'न होने' में देख पाता है सार-श्रृंगार
उसका स्मरण भी देता है आश्वस्त आधार 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, १५ जून २०११  
  
            

2 comments:

Unknown said...

बेहत प्रभावशाली संवेदनशील पंक्तियाँ

प्रवीण पाण्डेय said...

कब तक समेटना है और कब से लुटाना है?

सुंदर मौन की गाथा

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