सुबह सुबह
अज्ञात स्थल पर
सजे हुए ज्ञात भाव
देख कर
साँसों के सार से
दृष्टि हटने की
सम्भावना देख कर
बढ़ाना चाहता हूँ अपनी सतर्कता
क्या क्या देखना है
क्या क्या सुनना है
क्या क्या कहना है
किस किस तरह के प्रभाव से करना है श्रृंगार
और कैसे बोध को भेजते रहना है क्षुद्रता के पार
सुबह सुबह
निश्छलता से अपना सौंदर्य उंडेलने के लिए
खिलते हुए फूल की
रणनीति की तरह
दिन को
सजगता से सुरक्षित करने
देखते हूँ
विराट के संकेत
और
सहज ही
बन जाता है
समन्वय बनाता
माधुर्य बढाता
एक तारतम्य
अपनी प्राथमिकताओं की सजावट को
छलने वाली स्थिति टल जाती है
यह क्षण
जब पूरी तरह सुरक्षित हो जाता है
अनंत की करूणा में भीग कर
खुल जाती हैं
अमृतमय सरोवर की आलोकित सीढियां
बस यहाँ से शुरुआत है
एक नए दिन की
यह सुन्दर, सार्थक, आनंद से परिपूर्ण
अमृतमय दिन
मैं
तुम्हारे साथ बांटना चाहता हूँ
और यह चाहत भी
उसके चरणों में सौंपता हूँ
जिसके देखे से
मैं मैं बनता हूँ
और
दिन दिन बनता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, १३ जून २०११
3 comments:
अशोक जी आपकी कविताओं में छायावादी तत्व कविता को चार चाँद लगा देते है बधाई
वही मिले जिससे मैं मैं बन जाये।
बहुत बढ़िया रचना, बधाई |
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
Post a Comment