पगडण्डी
पहाड़
हरियाली
घास
बादल
चुप्पी
सांस में
बोध विस्तार का
सुन्दर विस्मय
धड़कता है
२
चिड़िया
स्पंदन
चमकीली अनुभूति
माधुर्य रस
एकमेक
गति-स्थिरता
मुस्कान स्पर्श सी
छू कर सबको
स्वयं अनछुई
निश्छल,
पूर्णता को
विरल तरल बना
सुलभ करवाती
अति दुर्लभ
३
धीमे धीमे हिलते
पेड़ की चोटी पर पत्ते
अति सुन्दर के
आगमन की घोषणा
गीली माटी में
प्रसन्नता की पावन गंध
न जाने कहाँ से
निकल कर
छुप गया
पेड़ों के पीछे
भागता हिरन
प्राकृतिक मौन के साथ
एकमेक
दृष्टा से चित्र
और
चित्र से दृष्टा तक की
यात्रा करता
जानने लगा हूँ
मुझमें से होकर
निकली हैं
कई कई शताब्दियाँ
मैं सबमें
मैं सब कुछ
और
मैं कुछ भी नहीं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, १२ जून २०११
3 comments:
मैं सबमें
मैं सब कुछ
और
मैं कुछ भी नहीं
मैं सबमे ..
सब मुझमे .. मैं हर जगह ..और ..
मैं कहीं भी नहीं...!!
sunder bhav .
सब के सब कर्म निरत हैं, शान्त भाव से।
कुछ अनोखा है आपकी कविताओं में
सादर- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
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