Sunday, June 12, 2011

मैं कुछ भी नहीं



पगडण्डी 
पहाड़
हरियाली
घास
बादल
चुप्पी
सांस में
बोध विस्तार का

सुन्दर विस्मय
धड़कता है


चिड़िया
स्पंदन
चमकीली अनुभूति
माधुर्य रस

एकमेक
गति-स्थिरता

मुस्कान स्पर्श सी
छू कर सबको
स्वयं अनछुई 
निश्छल, 

पूर्णता को 
विरल तरल बना
सुलभ करवाती
अति दुर्लभ


धीमे धीमे हिलते
पेड़ की चोटी पर पत्ते 

अति सुन्दर के 
आगमन की घोषणा

गीली माटी में
प्रसन्नता की पावन गंध       

न जाने कहाँ से
निकल कर
छुप गया
पेड़ों के पीछे
भागता हिरन

प्राकृतिक मौन के साथ
एकमेक
दृष्टा से चित्र
और
चित्र से दृष्टा तक की
यात्रा करता

जानने लगा हूँ
मुझमें से होकर
निकली हैं
कई कई शताब्दियाँ
मैं सबमें
मैं सब कुछ
और
मैं कुछ भी नहीं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
          रविवार, १२ जून २०११           

     

3 comments:

Anupama Tripathi said...

मैं सबमें
मैं सब कुछ
और
मैं कुछ भी नहीं

मैं सबमे ..
सब मुझमे .. मैं हर जगह ..और ..
मैं कहीं भी नहीं...!!
sunder bhav .

प्रवीण पाण्डेय said...

सब के सब कर्म निरत हैं, शान्त भाव से।

Vivek Jain said...

कुछ अनोखा है आपकी कविताओं में
सादर- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

सुंदर मौन की गाथा

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