सुबह की हवा
पंछियों की बोलियाँ
कितना मीठा संगीत
प्रकृति प्रस्तुत है
अपने सौन्दर्य और
मन को उल्लसित करते
शुद्ध स्वरों के साथ
और हम
या तो धरे रह जाते
अपने घर की दीवारों में
या फिर
घर से निकल कर भी
बंदी बने रहते
सोच की दीवारों के
२
लो टप-टप
टपकी बूँदें
उभरी नई सी ध्वनि
बादलों से
और सुबह सुबह
सूर्य को चुनौती देते
काले बादलों ने भी
रच दिया
अँधेरे -उजाले का एक
नया संधि काल
बूंदों की छम छम
छेड़ गयी कैसा राग
उमड़ रहा आल्हाद
३
बरखा के साथ भी
सम्बन्ध बदल जाता है
थोड़ी देर बाद
बूंदों के संगीत
बिजली के बोल
और
महीन मौन के पार
हम फिर लौटना चाहते हैं
अपने अधूरे संकल्पों की धरा पर
पर
बिजली की गड़गड़ाहट
खींच लेती है ध्यान
इस रिम-झिम में
तन्मयता के साथ
सहसा मिल जाता
मुक्ति का अनुनाद
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० मई २०११
2 comments:
बूंदों की छम छम
छेड़ गयी कैसा राग
उमड़ रहा आल्हाद
गौड़ मल्हार या मियां मल्हार
का है स्वाद ..
इस रिम-झिम में
तन्मयता के साथ
सहसा मिल जाता
मुक्ति का अनुनाद
sunder abhivyakti .
उस अनुनाद की ध्वनि अनवरत है।
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