Monday, May 30, 2011

मुक्ति का अनुनाद



सुबह की हवा
पंछियों की बोलियाँ
कितना मीठा संगीत
प्रकृति प्रस्तुत है
अपने सौन्दर्य और 
मन को उल्लसित करते
शुद्ध स्वरों के साथ

और हम
या तो धरे रह जाते
अपने घर की दीवारों में
या फिर
घर से निकल कर भी
बंदी बने रहते
सोच की दीवारों के

 
लो टप-टप
टपकी बूँदें
उभरी नई सी ध्वनि
बादलों से
और सुबह सुबह
सूर्य को चुनौती देते 
काले बादलों ने भी
रच दिया
अँधेरे -उजाले का एक 
नया संधि काल

बूंदों की छम छम
छेड़ गयी कैसा राग
उमड़ रहा आल्हाद


बरखा के साथ भी
सम्बन्ध बदल जाता है
थोड़ी देर बाद

बूंदों के संगीत 
बिजली के बोल
और
महीन मौन के पार
हम फिर लौटना चाहते हैं 
अपने अधूरे संकल्पों की धरा पर
पर
बिजली की गड़गड़ाहट
खींच लेती है ध्यान

इस रिम-झिम में
तन्मयता के साथ 
सहसा मिल जाता
मुक्ति का अनुनाद 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० मई २०११  
 
    
     
      
     

2 comments:

Anupama Tripathi said...

बूंदों की छम छम
छेड़ गयी कैसा राग
उमड़ रहा आल्हाद

गौड़ मल्हार या मियां मल्हार
का है स्वाद ..


इस रिम-झिम में
तन्मयता के साथ
सहसा मिल जाता
मुक्ति का अनुनाद
sunder abhivyakti .

प्रवीण पाण्डेय said...

उस अनुनाद की ध्वनि अनवरत है।

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