मिटने का डर मिटा, मस्त करना उसको आता है
मिटने में एक अमिट छुपा जो, उसको दिख जाता है
२
अब कविता नहीं
मौन
मौन में उतरता है
ओस की बूँद सा
चुपचाप
एक रसमय
प्रसन्न, पुलकित भाव
विस्तार का सहज विवर्तन
इसके केंद्र में पहुच कर
जब ये जान पड़ता है की
हर कण में
केंद्र है इसी का
शब्द मुस्कुरा का
जिस क्षण
स्वयं भी
केंद्ररूप हो जाते हैं
उस क्षण
मौन, कविता और जीवन एक हो जाते हैं
फिर
मौन हो
कविता हो या जीवन
सत्ता एक ही है
यह सत्ता हमें सौंपने वाला
कितना उदार है
कितना महान है
और
चतुर भी
उसकी महिमा गाते गाते
हम अपनी ही महिमा गाने लगते हैं
और
वो फिर हमें
अपने ही बुने हुए जाल में
फंसता देख कर
खिलखिलाता है
'फंसा दिया ना!"
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, २१ मई २०११
2 comments:
जय हो!
"फंसा दिया ना!"
जी,अशोक भाई आपने भी तो मुझे "फंसा दिया ना" सुन्दर सुन्दर भावों का जाल बुन कर.आपके ब्लॉग पर आने का लोभ बना रहता है.
मेरे ब्लॉग पर भी आईयेगा.नई पोस्ट जारी की है.
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