Saturday, May 14, 2011

जिससे होती है पहचान मेरी


एक महीन सी रेखा 
यह अदिखी
बदल देती है
मेरे साथ मेरा सम्बन्ध
और
यह बदलाव दिखाई देने लग जाता
सभी संपर्कों में

यह
संतोष-असंतोष
सफलता-असफलता
और
कामनाओं के उतार-चदाव का परिदृश्य

जिससे होती है पहचान मेरी
इस सबके परे हूँ मैं

पर वह चिरमुक्त होना मेरा
क्यूं याद नहीं रहता निरंतर

भूल कर
अनंत विस्तार की
रसमय सम्भावना

क्यूं बार बार
बंदी हो जाता हूँ
स्थितियों के बदलते चेहरों का

एक महीन सी
यह रेखा अदिखी
जो बदल देती है 
मेरा साथ मेरा सम्बन्ध
इस रेखा को कौन खींचता है?

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, मई १४ 2011 
        
    

1 comment:

Rakesh Kumar said...

एक महीन सी यह रेखा अदिखी जो बदल देती है मेरा साथ मेरा सम्बन्ध इस रेखा को कौन खींचता है?

भगवान कृष्ण श्रीमद भगवद्गीता में बतलाते हैं
'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन:
मन:षष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति'

इस जीवलोक यानि देह में यह जीव मेरा ही सनातन अंश ( सत्-चित-आनंदस्वरूप) है. यह मन और पांचो इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति से कर्षण करता रहता है अर्थात अंत;करण की तरफ उन्मुख न होकर बाहर की तरफ भागता रहता है और प्रकृति में लिप्त हों 'एक महीन सी रेखा' खींच लेता है शायद,जैसा आपने इस सुन्दर अभिव्यक्ति में प्रगट किया है.
अपने चिरमुक्त और 'सत्-चित-आनंद' स्वरुप को पाने के लिए हमें बाहर से मन बुद्धि को हटा अपने अंत:करण की तरफ उन्मुख होने की ही आवश्यकता है.
तत्वबोध कराती सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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