खो गए जो शब्द
घुल कर हवा में
स्पर्श की परिधि से परे
दृष्टि की सीमा लांघ कर
एक अज्ञात स्थल पर
उतार कर
अर्थ के वस्त्र
आलोकित शून्य में विलीन
उन शब्दों के उद्गम से
मेरा जो सम्बन्ध रहा
उस सेतु पर
अब भी
अंतिम पुष्प नहीं चढ़ाये हैं
एक लकीर आस की
नहीं करने देती विदा
तुम्हें
ओ अदृश्य स्थल के निवासी
ह्रदय में
तुम्हारी जगमगाहट बनी हुई है
अनवरत
अशोक व्यास
१३ मई 2011
2 comments:
ओ अदृश्य स्थल के निवासी ह्रदय में तुम्हारी जगमगाहट बनी हुई है अनवरत
सुन्दर दार्शनिकता का सुखद अनुभव हुआ.
अशोक जी अंत:करण में बहुत गहन विचरण करते हैं आप.आभार.
वह जगमहाट जिसमें सब दिखता है।
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