Thursday, May 12, 2011

आस्थायुक्त आनंद की गर्जना


अब हम वहां आकर बैठ गए हैं
जहाँ 
जीवन के विस्तार की चर्चा
अव्यवहारिक लगती है

कोइ हमें 
ये आश्वस्ति दे की
हमारा नाम कामना दास नहीं
मुक्त राज है
तो हम उसे छोड़ कर
कामना पूर्ति का योग ढूँढने
निकल पड़ते हैं

अब हमें सूरज के उजाले में
प्रकाश संश्लेषण के क्रिया कर 
ऑक्सीजन बनाते पत्तों की बात तो समझ आती है
पर
भास्कर के साथ
आत्म-विश्लेषण की प्रक्रिया
हमें व्यर्थ जान पड़ती है

हम जहाँ बैठे हैं
अपने आपको सीमित मान कर
एक छोटे से घेरे में
जीवन का मर्म मान कर
यहाँ
हम ही बैठे हैं न आकर
तो इसमें अच्छी बात ये है की
हम यहाँ से उठ भी सकते हैं
और
तत्परता से
आस्थायुक्त आनंद की गर्जना सुन
अब भी 
तन्मय हो सकते हैं 
उसमें
जिससे सब है     
   

2 comments:

Rakesh Kumar said...

अब हमें सूरज के उजाले में
प्रकाश संश्लेषण के क्रिया कर
ऑक्सीजन बनाते पत्तों की बात तो समझ आती है
पर
भास्कर के साथ
आत्म-विश्लेषण की प्रक्रिया
हमें व्यर्थ जान पड़ती है

विलक्षण,अनुपम,अद्वितीय है आस्थायुक्त आनंद की गर्जना.आपके आत्मज्ञान को प्रणाम.आपकी लेखनी को प्रणाम.

प्रवीण पाण्डेय said...

हमारा विस्तार अपार है।

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