Monday, May 2, 2011

करने और होने के तनाव से परे


मन के पास
सूची है संकल्पों की

चुपके से जाकर 
न जाने कौन
इस सूची को प्रवाहित कर गंगा में

मन को
नवजात शिशु सा कोमल बना कर
दिखला देता है
अप्रतिम सौंदर्य

करने और होने के तनाव से परे
मन अपने आप में मुग्ध
अनवरत आनंद की तान में मगन

तत्पर है
उंडेलने को
यह निश्छल संपदा
जो धरोहर है
मानव मात्र की

मन 
सब आग्रह छोड़ कर
सीमा रहित विश्वास पाकर
विनम्रता से
प्यार के अगणित झरने प्रकट कर देता है
न जाने कैसे

इस अमृतमय कलकल 
को सुनने जो जो आता है
उससे उसका 'सीमित मैं' खो जाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २ मई २०११  

4 comments:

Anupama Tripathi said...

इस अमृतमय कलकल
को सुनने जो जो आता है
उससे उसका 'सीमित मैं' खो जाता है

और असीमित आनंद पाता है ...!!

प्रवीण पाण्डेय said...

देख रहा हूँ,
सब हलचल है।

Smart Indian said...

काश मेरा मन भी ऐसा हो पाता। रचना पढकर "मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ..." की याद आ गयी।

Ashok Vyas said...

जय हो स्मार्ट इंडियन जी, धन्यवाद अनुपमजी और आत्मीय रूप से हलचल को अपनाने वाले
प्रवीणजी को नमन

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