Thursday, April 28, 2011

सीमाओं का ताना-बना


1
और सहसा
किसी चिड़िया ने चोंच मार कर
प्रविष्ट कर दिया उसमें
कसमसाहट भरता विचार

तो क्या
जीवन इतना सा ही रहा
अपने आप में उलझ कर
देख ही ना पाया विस्तार?


जीवन क्या उतना ही है
जितना देता है दिखाई
क्यूं पीड़ादायक लगती है
ये सीमाओं की परछाई

हर दिन स्वयं को सहेजते सहेजते 
बीत जाता है
कौन तय करता है, किसके हाथ में
क्या आता है

और जो कुछ पाया
कई बार, वह सब अर्थहीन भी हो जाता है
खंडित होने का अनुभव
चाहे जहाँ से आये, हमें नहीं सुहाता है

तो फिर
नीली छतरी तले 
फिर से सम्पूर्णता का अनुसंधान
कभी कभी
मुक्ति के लिए आवश्यक है
अपनी मूढ़ता की पहचान


पावन नदी में डुबकी लगा कर
इस बार उसने
मांग लिया अपना ही उद्धार
अंजुरी में उसकी
प्रकट हुआ
विस्तार का सार
 "अगर सीमा रहित को अपनाना है
तो जो जिसका है, उसे लौटाना है
भीतर से भी, छोड़ना है संग्रह का आग्रह
वरना जीवन सीमाओं का ताना-बना है "
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, 28 अप्रैल 2011   

    

         

2 comments:

Anupama Tripathi said...

"अगर सीमा रहित को अपनाना है
तो जो जिसका है, उसे लौटाना है
भीतर से भी, छोड़ना है संग्रह का आग्रह
वरना जीवन सीमाओं का ताना-बना है "

सुंदर विस्तार का सार.....!!

प्रवीण पाण्डेय said...

सीमाओं में बँधी असीमित ऊर्जा।

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