जैसे
गुलाब की पत्ती पर ओस की बूँदें
जैसे
स्निग्ध माधुर्य में भीगा वातावरण
एक सतरंगी उल्लास सा
सौम्य उत्सव से अलंकृत क्षण
मेरी हथेली पर
भोर के साथ
कैसी बहुमूल्य दौलत धर देता है वह
रोम रोम से
हर एक पल
उसका गुणगान करके भी
इसके बराबर तो नहीं पहुँच सकता
बस मौन में
नम आँखों से
पत्तियों के साथ छेड़ करती हवा को देख कर
शुद्ध सौन्दर्य का एक स्वर
उभरता देखता हूँ अपने भीतर से
और
मेरे-तुम्हारे की विभाजन रेखा
लुप्त सी हो जाती है
देने वाले भी तुम
लेने वाले भी तुम
मैं
तुम्हारे होने का साक्षी
विस्तृत होती चेतना के साथ
मगन पूर्णता के इस प्रसाद में
बस और क्या?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२७ अप्रैल २०११
2 comments:
मैं
तुम्हारे होने का साक्षी
विस्तृत होती चेतना के साथ
मगन पूर्णता के इस प्रसाद में
बस और क्या?
बहुत सुन्दर ...
मगन करता पूर्णता का प्रसाद ....
सुंदर पूर्णता का एहसास ...!!
बहुत सुंदर अनुभूति ...!!
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