सत्य के स्वर्णिम आलोक में स्नान करवाता
वह एक ज्वार सा
उतरने लगा है
खुरदुरे सन्दर्भों की ज़मीन पर
पहुँचने से पहले
अनंत सौंदर्य का संपर्क खो देने का डर है
ऐसे में
सृष्टि का सार बचा कर
सब कुछ समन्वित करने के लिए
जिसे पकड़ सकता हूँ
वह बस 'मैं' हूँ
अपना हाथ थाम लेने के लिए
आवाहित करता हूँ 'शब्द'
वे 'शब्द' जो
तुमने मुझे दिए
जिनमें 'विराजमान' हो तुम
तब से
जब शायद पृथ्वी भी नहीं थी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, २४ अप्रैल २०११
4 comments:
वे 'शब्द' जो
तुमने मुझे दिए
जिनमें 'विराजमान' हो तुम
तब से
जब शायद पृथ्वी भी नहीं थी
कविता के अंतिम पड़ाव पर रहस्य की सृष्टि करना इस कविता को कालजयी बनाता है ...आपके ब्लॉग पर आकर कविता को लिखने के नए सीखने को मिले ....आपका आभार
शब्द प्रथम था।
शानदार्……………॥
गूढ़ रहस्य ...!!
बहुत सुंदर .
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