Sunday, April 24, 2011

जब शायद पृथ्वी भी नहीं थी


सत्य के स्वर्णिम आलोक में स्नान करवाता
वह एक ज्वार सा
उतरने लगा है

खुरदुरे सन्दर्भों की ज़मीन पर 
पहुँचने से पहले
अनंत सौंदर्य का संपर्क खो देने का डर है 

ऐसे में
सृष्टि का सार बचा कर
सब कुछ समन्वित करने के लिए
जिसे पकड़ सकता हूँ
वह बस 'मैं' हूँ

अपना हाथ थाम लेने के लिए
आवाहित करता हूँ 'शब्द'
वे 'शब्द' जो 
तुमने मुझे दिए
जिनमें 'विराजमान' हो तुम
तब से
जब शायद पृथ्वी भी नहीं थी


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, २४ अप्रैल २०११    
 

4 comments:

केवल राम said...

वे 'शब्द' जो
तुमने मुझे दिए
जिनमें 'विराजमान' हो तुम
तब से
जब शायद पृथ्वी भी नहीं थी

कविता के अंतिम पड़ाव पर रहस्य की सृष्टि करना इस कविता को कालजयी बनाता है ...आपके ब्लॉग पर आकर कविता को लिखने के नए सीखने को मिले ....आपका आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्द प्रथम था।

vandana gupta said...

शानदार्……………॥

Anupama Tripathi said...

गूढ़ रहस्य ...!!
बहुत सुंदर .

सुंदर मौन की गाथा

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