इस बार
उसके आने की आहट सुन कर भी
मैंने खोली नहीं आँखें
शायद वो ही हो
शायद वो नहीं हो, सिर्फ भ्रम हो
पर कोई एक भावसूत्र लेकर
मैं
खेलने लगा उससे संबोधित होने का खेल
'इस बार नहीं देखना है तुम्हें'
'तुम आते हो
दिखते हो
सब कुछ दिखाते हो
और फिर खुद छुप कर
जो जो दिखाया
वो सब सच
मेरे लिए झूठ कर जाते हो
अब इस तरह सताते हो
बैचेनी बढाते हो
कभी सहारा देते हो हर बात का
कभी बेसहारा कर जाते हो
कभी सार जगाते हो हर क्षण में
कभी सब कुछ अर्थहीन कर जाते हो'
कुछ देर चुप रहा
सुनता रहा उसकी संभावित प्रतिक्रिया
शब्द नहीं उसका मौन ही था
उसमें करूणा भी थी
और सत्य की वही तरंग थी
जिसे पकड़ न पाने की छटपटाहट से
व्यथित था
अगर वो बोलता तो शायद ये कहता
"क्या करूँ
नियम है
मुझे वही पकड कर रख सकता है
जो मेरे जैसा बन जाए
और फिर
प्रश्न 'पकड़ने या छोड़ने' का नहीं
'होने' का ही शेष रह जाता है
जब तक तुम
वह न हुए जो 'हो'
तब तक
मेरा-तुम्हारा साथ
ऐसा ही रहेगा
'होकर भी कभी कभी होगा नहीं
न होकर भी होगा ही हमेशा"
मौन में
उसकी हंसी सुनकर मुस्कुराया
आंख खोली तो
खिड़की से निश्छल, कोमल
उजियारा भीतर आया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, १२ अप्रैल 2011
2 comments:
मौन में
उसकी हंसी सुनकर मुस्कुराया
आंख खोली तो
खिड़की से निश्छल, कोमल
उजियारा भीतर आया
सुंदर भाव -
अर्थपूर्ण सुंदर रचना .
मौन का संदेश, शब्दों का भेष।
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