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दिन है, पर कोई लिहाफ सा ओढ़े है
किरणों का रथ जाने कैसे दौड़े है
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बस जल्दी जल्दी
उसने निकाल कर रख दिए
काउंटर पर सारे
बेशकीमती आभूषण
और
मुक्ति की मांग के साथ
जब देखा दाता को
हंस कर कहा देने वाले ने
जब तक
सबसे अधिक मूल्यवान
स्वयं को
नहीं सौपोगे यहाँ
मुक्ति नहीं
मुक्ति की परछाई ही
मिल सकेगी
सारी की सारी
बाहरी दौलत के बदले
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, ११ अप्रैल ११
3 comments:
हंस कर कहा देने वाले नेजब तकसबसे अधिक मूल्यवानस्वयं को नहीं सौपोगे यहाँमुक्ति नहींमुक्ति की परछाई हीमिल सकेगीसारी की सारीबाहरी दौलत के बदले
कठिन है मार्ग .....
सत्य की अमृत वर्षा करती हुई बहुमूल्य रचना ......!
अन्तरतम तो सुन्दरतम है।
धन्यवाद अनुपमाजी और प्रवीण जी
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