वहां न छोडो बात
जहाँ से झांकता रहे अधूरापन
वहां तक रहे साथ
जहाँ निखरता है नित्य अपनापन
२
पत्तों के नए वस्त्रो का आर्डर देकर
धूप सखी से बतियाती
जड़ से जुडी हुयी
नंगी शाखाएं भी मुस्कुराती
३
डुबकी लगा कर
मैंने गंगा में
जब अपने दादा को याद किया था
तब एक सिरहन सी जागी थी बदन में
जैसे पावन गंगा ने
मेरा प्रणाम देह से परे हुए दादा तक
पहुंचा कर
मुझे दे दिया एक संकेत
'हाँ
तुम करो पाठ 'गीता' का
सूक्ष्म श्रवण दादा-दादी का
साथ है तुम्हारे'
४
यह सब
जो होता है
हमारे करने से होता लगते हुए भी
होता तो है अपने आप
इस अपने आप होते हुए को
देखते हुए
किसी एक निश्छल क्षण में
हो लेता हूँ
मैं भी
ना होते हुए
और इस 'हुए'
से झरता है
आलोकित आनंद
उमड़ आता
साँसों में
ताज़े मक्खन सा प्रेम
जिसे चुपचाप लुटाने
घर-घर जाता हूँ
अचरज है
जितना जितना लुटाता हूँ
उससे कहीं अधिक
अपने भीतर पाता हूँ
इस स्वतः स्फूर्त खेल में
जितना जितना खो जाता हूँ
उतना उतना स्वयं को पाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, २९ मार्च 2011
3 comments:
पत्तों के नए वस्त्रो का आर्डर देकर
धूप सखी से बतियाती
जड़ से जुडी हुयी
नंगी शाखाएं भी मुस्कुराती
सरजी शायद यही ईश्वर के होने का मतलब है।
आपकी रचनाओं को पढ़कर लगता है जैसे अन्दर से प्राण उमड़ गया हो।
प्रेम से भरी आलौकिक रचना -
प्रभु के होने की दिव्य अनुभूति दे रही है .
ईश्वर की गणित अचम्भित करने वाली है।
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