वह जो दिखता है
उसके पीछे वह है
जो दिखता नहीं
पर है
एक वह
जो है
जो रचता है
रचता है स्वयं से
स्वयं को
और
खेलता है खेल
खोने और पाने का
२
एक वह
अपने आनंद की उछाल
प्रकट करता है
छुप छुप कर
जो दीखता है
उससे परे
अद्रश्य को देख कर
संचरित होता है जो आनंद मुझमें
उसे मैं गाता हूँ
या वो ही
मेरे अलग अलग कर्मों से मुझे गाता है
लौकिक-अलौकिक का भेद मिटाता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ मार्च २०११
3 comments:
रेत के धरौंदों का खेल।
जो दीखता है
उससे परे
अद्रश्य को देख कर
संचरित होता है जो आनंद मुझमें
उसे मैं गाता हूँ
या वो ही
मेरे अलग अलग कर्मों से मुझे गाता है
लौकिक-अलौकिक का भेद मिटाता है
इसी दिव्य आनन्द मे ही तो डूबती उतरती रहती हूँ……………भावो को शब्द दे दिये……………आभार्।
Dhanywaad Praveenjee
Badhaeeyan Vandanajee
shubh kaamnaon sahit
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