Monday, February 21, 2011

इस तरह देखें स्वयं को








लो फिर गिर रही है बर्फ रूई के फाहों सी
उजली है, जब तक ऊपर-ऊपर है
गिरने के बाद होने लगेगी काली

तय है बर्फ का गिरना तो
पर हम बच सकते हैं गिरने से
रह सकते हैं उन्नत
उसका हाथ थाम कर
जो हमें बनाने और मिटाने का खेल बनाता है







फ्रीज़ खोल कर
बार बार देखना
शायद कुछ ऐसा पदार्थ
कर ले आकर्षित
जो पहले दिख ना पाया हो

रचनात्मक चिंतन
देखे हुए को फिर से
देखते हुए
देख लेता है
कुछ अनदेखा
और
देखने मात्र से
हो जाती है तृप्ति

सारा जीवन
देखना सीखने
और इस अभ्यास में लग जाता है
की इस तरह देखें स्वयं को
की कभी अधूरे न लगे खुदको


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २१ फरवरी २०११
        

 

2 comments:

Kailash Sharma said...

सारा जीवन
देखना सीखने
और इस अभ्यास में लग जाता है
की इस तरह देखें स्वयं को
की कभी अधूरे न लगे खुदको

बहुत सार्थक रचना...बहुत सुन्दर

Ashok Vyas said...

dhanyawaad kailashji

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