मैं अब
छोड़ चुका हूँ किनारा
खोल कर लंगर
गति पकड़ने लगी है नाव
थपेड़े लहरों के
बतियाने लगे हैं मुझसे
हवा के नृत्य से
जुड़ गयी है मेरी दिशा
और
गंतव्य का गहरा बोध
भर रहा है
एक अनूठा उत्साह मेरी शिराओं में
नदी के बीच
बासी पराठा मुक्ति का
नहीं देता है तृप्ति
अब
इस क्षण
किरणों से, लहरों से, गति से
किनारे की स्मृति से
और पतवार की मधुर लय को
अपनी धडकनों में सजा कर
कर रहा
उस विस्मय का आव्हान
अंतस में
जो रच कर
शाश्वत के पदचिन्ह
मिटा कर अधीरता
दे सकता है मुझे
सम्पूर्णता का स्वाद तत्काल
मुक्ति का अदृश्य पराठा
सूंघ कर
निश्छलता से
लो मैंने देख लिया
अपने आपको
नदी, किनारे, गति से परे
वहां तक
जहा पहुँचने में
संकोच करती हैं सीमायें
अशोक व्यास
रविवार, १३ फरवरी 2011
3 comments:
गहन चिंतन से परिपूर्ण बहुत सुन्दर रचना..
dhanyawaad Kailashji
जब जूझ रहे तो जूझें बस।
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