Monday, February 7, 2011

मुझे पता ही ना चला


उसने कहा तो था
कि जब जब बुलाऊंगा
आएगा वो

पर ये भी कहा था
पूरे मन से बुलाना

अब जब उसे बुलाने की जरूरत है
खंडित मन के इतने सारे टुकड़े
सहेज सहेज कर
पूर्ण आकर बनाने की
कोशिश में
सहसा कौंध गया प्रश्न
किस रंग-रूप का है मेरा मन
आकाश से पूछा तो
उसने कहा 'मेरे जैसा विस्तृत'
हवा से पूछा तो बोली 
'मेरी तरह चंचल'
 
अग्नि, जल और पृथ्वी से
पूछने की बजाये
मन के दर्पण से पूछा 
तो बोला
मन का कोई आकार है नहीं अपना
उसे रंग, रूप, आकार के आभूषण 
तुम पहनाते हो
कभी उसका विस्तार छुपा कर
क्षुद्रता अपनाते हो

मजा तो तब आता है
जब तुम खेल खेल में
स्वयं मन बन जाते हो
लघुता का कोई स्वांग रचाते हो 
और स्वयं को मन ही मान कर
सीमित परिधि में फंस जाते हो 

सहसा 
उसे बुलाने की आवश्यकता
तिरोहित हो गयी
क्या जिसे बुलाना था
वो मैं ही हूँ
या फिर 
वो आया, मुझे छूकर चला गया
और
मुझे पता ही ना चला

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, ७ फरवरी २०११





1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

पूरे मन से बुलाने की शर्त लगा दी, मन तो बस में ही नहीं है।

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