Wednesday, December 22, 2010

ताज़ी हवा का झोंका सा




कैसे हो जाता है
कभी कभी ऐसा 
कि अनुपयुक्त हो जाते हैं
ध्यान के लिए
किसी से प्रेमपूर्ण संवाद के लिए
किसी के उत्साह में 
घुल मिल जाने के लिए

कौन कर देता है
हमें अयोग्य,
सृजनशील प्रवाह का हिस्सा बनने की पात्रता
छिटक जाती है कहीं

ना चित्र
ना कविता
ना जुड़ने-जोड़ने की मधुर लय

कैसे एकाकीपन पैठ कर
हमारे भीतर
बना देता है
एक कोठारी
जिसमें
विषबुझे सवालों से
निर्मम जेलर की तरह
स्वयं को डसते रहते हैं हम

जड़ता की जकड से बाहर आने
किसी झूठ का सहारा लेकर
कभी कभी कर भी लेते है 
असफल प्रयास

मुक्ति के लिए
हर बार सत्य के साथ गतिमान होने का साहस
आवश्यक हो ही जाता है

किसी ना किसी स्तर पर

तो 
घूम फिर कर
सामने आती है
सत्य के साथ एकमेक होने की अनिवार्यता
और इस सजगता के साथ
ना जाने कहाँ से आकर
छू गया है मुझे
ताज़ी हवा का झोंका सा
काल-कोठरी में 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, २२ दिसंबर २०१०

1 comment:

mridula pradhan said...

"ताज़ी हवा का झोंका सा"
behad khoobsurat lagi.

सुंदर मौन की गाथा

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