कैसे हो जाता है
कभी कभी ऐसा
कि अनुपयुक्त हो जाते हैं
ध्यान के लिए
किसी से प्रेमपूर्ण संवाद के लिए
किसी के उत्साह में
घुल मिल जाने के लिए
कौन कर देता है
हमें अयोग्य,
सृजनशील प्रवाह का हिस्सा बनने की पात्रता
छिटक जाती है कहीं
ना चित्र
ना कविता
ना जुड़ने-जोड़ने की मधुर लय
कैसे एकाकीपन पैठ कर
हमारे भीतर
बना देता है
एक कोठारी
जिसमें
विषबुझे सवालों से
निर्मम जेलर की तरह
स्वयं को डसते रहते हैं हम
जड़ता की जकड से बाहर आने
किसी झूठ का सहारा लेकर
कभी कभी कर भी लेते है
असफल प्रयास
मुक्ति के लिए
हर बार सत्य के साथ गतिमान होने का साहस
आवश्यक हो ही जाता है
किसी ना किसी स्तर पर
तो
घूम फिर कर
सामने आती है
सत्य के साथ एकमेक होने की अनिवार्यता
और इस सजगता के साथ
ना जाने कहाँ से आकर
छू गया है मुझे
ताज़ी हवा का झोंका सा
काल-कोठरी में
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, २२ दिसंबर २०१०
1 comment:
"ताज़ी हवा का झोंका सा"
behad khoobsurat lagi.
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