घेरा बनता है
दिन पर दिन
मेरे चारों ओर
एक के बाद दूसरा
मुक्ति के लिए
नए नए पैंतरे अपनाने की
सीख देता है कोई
जैसे
हर स्थिति
एक युद्ध हो
जैसे
हर संघर्ष
अस्तित्त्व की लड़ाई हो
प्रतिक्रिया के लिए
मानस द्वार पर सुनती थपथपाहट
अनदेखी कर
कई बार
बहने देता हूँ
स्थिति को
अपनी लय में
देखते हुए विराट को
कई बार
अपने आप
लुप्त हो जाता है
बंदीगृह जैसा घेरा
मेरी दृष्टि में
अकाट्य मुक्ति का जादू
जगाने वाला
चिरमुक्त जो है
उसके प्रति आभार से देखता हूँ जब
उमड़ आते हैं
हृदय में
सबके लिए
प्यार ओर करूणा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० सितम्बर २०१०
2 comments:
बस यही तो सत्यबोध है।
बहुत ही सुन्दर।
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